शनिवार, 29 दिसंबर 2012

'दामिनी'

'दामिनी' 
'तुम' चली गयी, 
जाना ही था तुम्हे, 
रुक भी जाती तो क्या? 
कहाँ जी पाती 'तुम' 
अपनी जिंदगी 'फिर से' , 
कहाँ से लाती जीने की 
वही चाह, 
वही उमंग, 
और सच कहूँ न , 
तो तुम्हारी मौत का मातम मनाता,
रोता पीटता ये समाज ही
तुम्हे जीने नहीं देता,
हर औरत के लिए तुम
'बेहया'
से ज्यादा कुछ नहीं होती,
और मर्दों का कहना ही क्या
'उन्हें तो एक नया मसाला मिल जाता,
जिस पर वो रिसर्च करते'
इससे ज्यादा कुछ भी नहीं होना था तुम्हारा,
तुम्हारा मुस्कुराना, हँसना ,
खिलखिलाना सब
खटकता लोगों को,
तब यही लोग तुम्हे
'बदचलन' का तमगा देते,
कहाँ निकल पाती
'तुम'
अपने जिस्म के लिजलीजेपन से बाहर,
या यूँ कहूँ की कहाँ निकलने देता
कोई तुम्हे तुम्हारे अतीत से बाहर,
कौन बनता तुम्हारी राह का 'हमसफ़र',
कोई नहीं,
'कोई भी नहीं',
माना की ये आंसू सच्चे हैं,
लेकिन ये तुम्हारी 'मौत' के आंसूं हैं,
तुम्हारे 'जिन्दा न रहने' के नहीं ...

!!अनु!!


ANITA MAURYA 

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2012

इक लम्बा अन्तराल, तुमसे मिलना पहली बार !

इक  लम्बा अन्तराल
तुमसे मिलना पहली बार !

'गुजरे'
उन तमाम वर्षों में
कभी याद नहीं किया तुम्हे
याद रहा तो बस इतना  ही
कि  तुम्हे याद नहीं मैं
तुम्हारे किसी एहसास
किसी भाव में नहीं मैं,
तब भी  लिखना चाहती  थी
तुम पर,
अजीब विडम्बना है न,
जब तुम थे तब शब्द नहीं थे,
'और  आज'
जब शब्द हैं तो तुम नहीं हो,
जीवन  तब भी था , जीवन अब भी है,
'पर जिंदगी'
जिंदगी नहीं,
सूरज का निकलना,
उसका डूबना,
बदस्तूर जारी है,
'गर नहीं है' तो किसी 'सहर'
किसी 'शाम' में 'तू नहीं है',
वक़्त के साथ धुंधलाती तस्वीरों में,
 'तुम्हारी तस्वीर'
'आज भी'
साफ़ साफ़ दिखाई पड़ती है मुझे
हवाओं का फुसफुसाना ,
फूलों का खिलखिलाना
अब भी सुनाई पड़ती हैं मुझे ,
'सोचा था एक बार',
भ्रम हो शायद ,
टूट जायेगा,
लेकिन जाने क्यों, होता है ये हर बार ,
'बार - बार' ..
इक  लम्बा अन्तराल, तुमसे मिलना पहली बार !

Anita Maurya 

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

Mayka

http://nivia-mankakona.blogspot.in/2012/12/mayka.html



सोफे पर पीठ टिकाये  निशा ने आँखे मूँद ली . पर आँखे मूँद लेने से  मन सोचना तो बंद नही करता न .  मन की गति पवन की गति से भी तेज होती हैं . एक पल मैं यहाँ तो दुसरे ही पल सात समंदर पार .,
एक पल मैं अतीत के गहरे पन्नो की परते उधेड़ कर रख देती हैं तो दुसरे ही पल मैं भविष्य  के नए सपने भी  देखना शुरू कर देती हैं .  निशा का मन भी  उलझा हुआ था अतीत के जाल में .  तभी फ़ोन की घंटी बजी 
" हेल्लो "
"हाँ जी बोल रही हूँ "
"जी"
 "जी "
" जी अच्छा"
" में उनको कह दूँगी "
 "आपने मुझसे कह दिया तो मैं  सब इंतजाम कर दूँगी ""
 "विश्वास कीजिये मैं  आप को  अच्छे से अटेंड करुँगी आप आये तो घर "
" यह तो शाम को ही घर आएंगे इनका सेल  फ़ोन भी  घर पर रह गया हैं "
"आप शाम को 7 बजे के बाद दुबारा फ़ोन कर लीजियेगा "
 "जी नमस्ते "

                                                                                           फ़ोन रखते ही पहले से भारी मन  और भी व्यथित हो उठा  एक नारी जितना भी कर ले  पर उसकी कोई कदर नही होती हैं   सुबह सुनील से निशा की बहस भी  उसकी बहन को लेकर हुई  थी  यह पुरुष लोग अपने रिश्तो के प्रति कितने सचेत होते हैं ना  स्त्री के लिए घर  आने वाले सब  मेहमान एक से होते हैं  परन्तु पुरुषो के लिय अपने परिवार के सामने उसकी स्त्री भी कुछ नही होती,न ही अपना घर , खाने के स्पेशल व्यंजन  होने चाहिए , पैसे पैसे को दाँत  से पकड़ने वाला पति  तब धन्ना सेठ बन जाता हैं  पत्नी दिन भर खटती  रहे  पर  उसपर अपने परिवार के सामने एकाधिकार एवेम आधिपत्य दिखाना पुरुष प्रवृत्ति होती हैं 
                                                            सुनील की बहन  रेखा  सर्दी की छुट्टियाँ   बीतने के लिय  उनके शहर आने वाली थी  सुनील चाहता था कि  उनका कमरा  एक माह के लिए उनकी बहन को दे दिया जाए   निशा इस बात के लिए राजी नही थी  पिछली बार भी दिया था उसने अपना कमरा  दीदी को रहने  के  लिए .....
                                                                                                              दिन भर रजाई में पड़े रहना  पलंग के नीचे मूंगफली के छिलके , झूठे बर्तन , गंदे मोज़े  निशा का मन बहुत ख़राब होता था  काम वाली बाई भी उनके तीखे बोलो की वज़ह से उस कमरे की सफाई  करने से कतराती थी . निशा के लिए सुबह स्नान के लिए  अपने एक जोड़ी  कपडे निकलना भी मुश्किल हो गया था तब .. उनके जाने के बाद जब निशा ने अपना कमरा साफ किया तो तब जाना था  उसके कमरे से अनेक छोटी छोटी चीज़े गायब थी  उसके कई कपडे ,  बिँदिया , पलंग के बॉक्स से चादरे ....
 मन खट्टा हो गया था उसका पिछले बरस  कि  अबकी बार आएँगी तो इनको अपना कमरा बिलकुल नही दूँगी सुनील मान लेने को तैयार ही न था  इस बार उनकी बहन छोटे कमरे में   रहे .
"                                                        निशा का मन अतीत में  जाता हैं अक्सर . मायका तो उसका भी हैं  वोह कभी दो दिन से ज्यादा के लिए नही गयी  सुनील का कहना हैं ....
".रही थी न 22 साल उस घर में    
अब भी तुम्हारा मन वहां ही क्यों रमता है ? 
अपना घर बनाने की सोचो बस !!
अब यही हैं तुम्हारा घर ..."
अब .जब भी जाती हैंमायके तो  अजनबियत का अहसास रहता हैं वहां , माँ बाबूजी उम्र के उस पड़ाव पर हैं जहा उनके शब्दों का कोई मोल नही अब , जैसा बन जाता हैं खा लेती हैं निशा  . बच्चे अगर जरा भी नखरे करे उनको आँखे तरेर कर चुप करा देती हैं  चलते  हुए माँ मुठ्ठी में बंद कर के  कुछ रुपये थमा देती हैं  और एक शगुन का लिफाफा 4 भाइयो की बहन को  कोई एक भाई " हम सबकी तरफ से " कहकर थमा देता हैं  ............न कुछ बोलने की गुंजाईश होती हैं न इच्छा .

                                       किस्मत वाली होत्ती हैं न वोह लडकिया  जिनको मायका नसीब होता हैं  जिनके मायके आने पर खुशिया मनाई जाती हैं , माँ की आँखों में परेशानी के डोरे नही खुशी के आंसू होते हैं 
टी वी पर सुधांशु जी महाराज बोल रहे थे  बहनों को जो मान -सम्मान मिलता हैं   जो नेग मिलता हैं  उसकी भूखी नही होती वोह  बस एक अहसास होता हैं कि इस घर पर आज भी मेरा र में आज भी हक हैं 
 निशा ने झट से आंसू पोंछे ,  फ़ोन उठाकर सुनील को  उनके दूकान  के नंबर पर   काल किया 
 "सुनो जी , बाजार से गाजर लेते आना , निशा दी कल शाम की ट्रेन से आ रही हैं  गाजर का हलवा बना  कर रख दूँगी उनके चुन्नू को बहुत पसंद हैं   "
  कमरे की चादर बदलते हुए  निशा सोचने लगी  ना जाने रेखा दीदी  ससुराल में किन परिस्तिथियों में रहती होगी  कैसे कैसे मन मारती होगी छोटी छोटी चीजो के लिए  . शायद यहाँ आकर उस पर अपना आधिपत्य दिखा कर उनका स्व संतुष्ट होता होगा . कम से कम किसी को तो मायका जाना सुखद लगे और खुश रहे उसके मन का रीता कोना !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!! 


 नीलिमा शर्मा 

रविवार, 9 दिसंबर 2012

'स्त्री'


जब अस्मत लुटी,
तो बेहया कहा गया, 
मर्जी से बिकी तो
 वेश्या कहा गया,
 'स्त्री' 
हर बार सलीब पर, 
क्यों तुझको धरा गया?

बेटे के स्थान पर,
जब जनती है बेटी, 
या फिर औलाद बिन, 
सुनी हो तेरी  गोदी, 
कदम कदम पर अपशकुनी 
और बाँझ कहा गया, 


हर बार सलीब पर, 
क्यों तुझको धरा गया?


जब भी तेरा दामन फैला, 
घर के दाग छुपाने को ,
जब भी तुमने त्याग किये,
हर दिल में बस जाने को, 
हर प्यार और त्याग 
को 'फ़र्ज़' कहा गया,  


हर बार सलीब पर, 
क्यों तुझको धरा गया?

पंख  पसारे, आसमान को, 
जब जब छूना चाहा  तुमने, 
रंग बिरंगे सपनों को, 
जब जब गढ़ना चाहा तुमने, 
आँचल में है दूध, 
आँखों में पानी कहा गया,  

हर बार सलीब पर, 
क्यों तुझको धरा गया?


Anita Maurya


गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

हर तरफ एक शोर हैं 
घोटालो का ही जोर हैं 
हर कोई देखता हैं राजनेताओ को 
पर यह हमारी अपनी ही कमजोर जड़ो का तोड़ हैं 


बचपन में हम देखा करते थे .दादी कितने घोटाले करती थी
माँ के लिय आई साड़ी बुआ को दिया करती थी
एक किलो दूध में एक लौटा पानी का
३० रुपए की सब्जी में सारी मिर्ची मुफ्त होती थी
क्या वोह घोटाला नही था हमारे खाने में ?

स्कूल में अक्सर हम मार खाने से बचते थे
पिछले साल वाले बच्चे की कॉपी से नोट्स टीपा करते थे
मेरे लिय तुम कल सीट रोकना कहकर अपने नोट्स दिया करते थे
क्या यह घोटाला नही था .हमारे बाल मन संस्कारों में ?


कॉलेज में जाकर बंक कक्षाए करना
एक्स्ट्रा क्लास के बहाने मूवी देखने चलना
नयी किताबे लेनी हैं माँ ,पर गिफ्ट दोस्त को करना
क्या यह घोटाला नही था हमारे व्यवहारों में ?

आज का काम कल करेंगे या
उस पर कुछ चाय पानी रखदो
आज बीमार हैं मेरी माँ कह दफ्तर में छुट्टी कर लो
दफ्तर का आधा सामान घर में पार्सल कर लेना
क्या यह घोटाला नही हैं हमारे रोजगारो में


बीबी घर पर रोती हैं दूसरी बाहो में होती हैं
पति दिनभर काम करे बेगम घर पर सिर्फ आराम करे
बच्चे बिगड़े पैसे पाकर बूढ़े चाहे भूखे मरे
रिश्ते नाते सारे छोडे . तेरे- मेरा अब कोई नही
क्या यह घोटाला नही अपने अपने रिश्तेदारों का


हर जगह घोटाले हैं
हम अपना दामन देख न पाते हैं
दूसरो पर अंगुलिया उठाते हैं
इन घोटालो की बुनियाद कहा से पढ़ी ?
यह जान नही पाते हैं
यह घोटाले हुए हैं जो आज
हमारी सामाजिक दुनिया में
उसके ज़िम्मेदार क्यों हमेशा दूसरो को ठहराते हैं
क्या यह घोटाला नही हैं
अपनी अपनी जिम्मेदारियों से बचकर जाने का ?Neelima sharma

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

पगली सी चित्कार




मंदिर के सामने हर रोज अंधेरे मे एक साया दिखता है
जब चित्कार अनसुनी की तो महसूस हुआ वो एक औरत है ।
बहुत डरी...इतना कि फिर कभी जिक्र नहीं किया किसी से
क्योकि जानती हु ऐसी औरत " पगली "कहलाती है
मिल जाती है अक्सर हर उस किनारे पर जहा नगर नहीं बसते ।
( वास्तविक अनुभूति पर आधारित )
प्रवीणा जोशी

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012

'प्रेम मन से देह तक

'प्रेम'
एक लम्बा अंतराल हो गया,
हमारा संवाद हुए,
यक़ीनन, तुम्हे याद नहीं होउंगी मैं,
पर मुझे याद हो तुम,
तुम्हारी नीली आँखें,
शरारती मुस्कान,
'तुम्हारा' मुझे छुप छुप कर देखना,
सब याद है मुझे,
प्रेम के उन चंद सालों में
पूरी जिंदगी जी ली मैंने,
'प्रेम' सुनने में लफ्ज़ भर,
जिओ, तो पूरी जिंदगी बदल जाती है,
तुम चाहते थे, 'पूर्ण समर्पण'
और मैं, 'सम्पूर्ण व्यक्तित्व',
तुम दिल से देह तक जाना चाहते थे,
और 'मैं' दिल से आत्मा तक,
तुम्हारा लक्ष्य 'मेरी देह'
 'मेरा', ' तुम्हारा सामीप्य',
मेरे लिए प्रेम, जन्मों का रिश्ता,
तुम्हारे लिए, चंद पलों का सुख,
परन्तु अपने प्रेम के वशीभूत मैं,
शनैः शनैः घुलती रही,
तुम्हारे प्रेम में,
'जानती थी' उस पार गहन अन्धकार है,
'फिर भी'
तुम्हारे लिए, खुद को बिखेरना,
मंजूर कर लिया मैंने,
'और एक दिन
तुम जीत ही गए, 'मेरी देह'
और मैं हार गयी, 'अपना मन'
'फिर'
जैसे की अमूनन होता है,
तुम्हारा औचित्य पूरा हो गया,
'और तुम'
निकल पड़े एक नए लक्ष्य की तलाश में,
'और मैंने'
उन लम्हों को समेट कर
अपने आँचल में टांक लिए,
रात होते ही 'मेरा आँचल',
आसमां ओढ़ लेता है,
'मैं',
हर सितारे में निहारती हूँ तुम्हे,
रात से लेकर सुबह तक.....

अनीता मौर्या  

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

हिरोइन नहीं थी वो,


हिरोइन नहीं थी वो,
और न ही किसी मॉडल एजेंसी की मॉडल
फिर भी,
जाने कैसा आकर्षण था उसमे
जो भी देखता, बस, देखता रह जाता,
उसका सांवला सा चेहरा,
मनमोहक मुस्कान,
और आँखें..?
आँखें तो जैसे के बस,
अभी बोल पड़ेंगी,
उम्र 17 साल
गंभीरता का आवरण ओढ़े,
जिए जा रही थी..
इक अजीब सा दर्द झलकता था,
उसकी आँखों से,
खामोश रहती थी वो,
किसी को अपना राजदार
जो नहीं बनाया था उसने,
फिर मैं मिली उससे,
उसकी राजदार,
उसकी सहेली बनकर,
'उसकी कहानी '
जैसे,
जिंदगी को कफ़न पहना दिया गया हो,
अपने रिश्तेदार की शोषण की शिकार वो,
जिन्दा लोगों में उसकी गिनती ही कहाँ होती थी,
वो निर्बाध बोलती रही,
और मेरी आँखे निर्बाध बरसती...
'एक दिन'
लापता हो गयी वो,
कोई कहता, 'भाग गयी होगी',
कोई कहता, ' उठा ले गयी होगी ,
जितने मुंह , उतनी बातें,
आज अचानक उसे रैम्प पर चलता देख,
हतप्रभ रह गयी मैं,
जिंदगी ने कहाँ से कहाँ पंहुचा दिया उसे,
मैं फिर चल पड़ी,
बनने उसकी राजदार,
इतनी यंत्रणा, इतनी पीड़ा,
कैसे मुस्कुराती है वो,
सब मन में समेट  कर,
उसके फैक्ट्री के मालिक ने,
दुराचार किया था उसके साथ,
विरोध करने पर चोरी का इलज़ाम लगा,
जेल भेज दिया,
पर रक्षक के भेष में छुपे,
वो भेड़िये भी टूट पड़े  उस पर,
उसका रोना, गिडगिडाना ,
सब ठहाकों की शोर में दब कर रह गया,
तब  ठान लिया उसने,
अब नहीं  रोएगी वो,
अपनी रोंदी हुई मुस्कान,
मसला हुआ जिस्म लेकर,
यहीं इसी दुनिया में रहेगी वो,
जियेगी, भरपूर जियेगी,
--
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और आज
वो सचमुच की हिरोइन है।

Anita Maurya...

रविवार, 6 मई 2012

...........'और सुबह हो गयी' ..........




.............रात का समय था ..करीब एक एक या डेढ़ बजा होगा ..सावित्री कुछ पढ़ रही थी सालों की आदत थी पढ़े बिना आज भी नींद नहीं आती थी .....ऋतु पास ही लेटी सो चुकी थी ....अचानक फोन बज उठा ....

.....इतनी रात को ????मन आशंकित हो उठा .....

..........घबरा कर उठाया ....कौन ?????.......नानी में रावी .........उधर से आवाज़ आई ......ओह !! हाँ बेटा क्या हुआ सब ठीक है ना ...??अरे नानी घबराओ मत एक अच्छी खबर है ...... वो चहक रही थी .......

..नानी में लुधियाना से बोल रही हूँ .....'वर्धमान' में मेरा चयन निश्चित है .....१५ दिन बाद मुझे ज्वाइन करना है ...

....और कल में पापा और अंश के पास चंडीगढ़ जा रही हूँ .........कुछ दिन वहां रह कर आपके पास आउंगी और पहली पोस्टिंग पर आप चलना मेरे साथ ...चलना होगा .....!.सावित्री ने सिर्फ शुरू के शब्द सुने और ख़ुशी से जैसे पागल ही हो गयी थी ......बस आशीर्वाद के कुछ शब्द मुह से निकले और ......फोन रख वो सीधा पूजा घर पहुँच गयीं थी ....भगवान् का शुक्रिया अदा करने के लिए ......दीपक जलाते -जलाते वो आठ वर्ष पहले पहुँच गयीं .....समय गति से चलता है और .....किसी के लिए नहीं रुकता मनुष्य को ही भाग कर या चल कर साथ देना होता है समय का ......

उन्हें सब याद आने लगा स्म्रतियां हावी हो गयीं .......उनकी नींद उड़ चुकी थी ......उन्हें अतीत में ले चला उनका मन .......???------------------------------------------------------------------------

सावित्री पूजा घर में हाथ जोड़े याचक बनी बैठी थी ......आँखों से आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे .........कमरे से रह -रह कर ह्रदय विदारक चीखें कानो में पहुँच रही थी ....उसकी ३५ वर्षीय विवाहिता बेटी संध्या केंसर जैसे असाध्य रोग से जूझ रही थी .....जैसे ही पेट का दर्द असहनीय होता वो चीख उठती .......डाक्टर अपने हाथ खड़े कर चुके थे .....बस सहारा था दुआओं का ..... या किसी चमत्कार का !!!.......सावित्री अन्दर तक हिल जाती हर चीख के साथ ,परन्तु जानती थी कुछ नहीं हो सकता कोई कुछ नई कर सकता ....

बहन संध्या के पास बैठी उसकी अविवाहित बहन ऋतु जो बस बहन का हाथ पकड़ उदास बैठी थी ........
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संध्या रितेश के साथ शादी कर बहत खुश थी ,एक फार्म में अच्छी तनख्वाह के साथ अच्छे पद का स्वामी था रितेश .....अपने माता पिता का एक मात्र पुत्र था और अब उसके माता पिता भी नहीं रहे थे तो .....पत्नी और दो प्यारे -प्यारे बच्चों के साथ चंडीगढ़ में रहता था .........चौदह वर्षीय बेटी रावी और आठ वर्षीय पुत्र अंश .........बहुत खुश थे ....पता नहीं किस की बुरी नज़र इस खुशहाल परिवार को लग गयी ??

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अचानक संध्या को अपने पेट में कुछ भारी पन अनुभव हुआ ....उसने गेस समझ अपना घरेलू इलाज कर लिया ...परन्तु आये दिन समस्या रहने लगी तो उसने डॉक्टर के पास जाना बेहतर समझा .....डाक्टर ने बताया की उसके utras में एक गाँठ जैसा कुछ है ओपरेशन करना होगा .....वह थोड़ा घबराई परन्तु डाक्टर और रितेश के समझाने बुझाने पर तैयार हो गयी ...उसने अपनी विधवा माँ को भी बताना उचित नहीं समझा उसे लगा अपनी अनेक समस्याओं से जूझती उसके माँ परेशान हो जायेंगी ......आखिर ओपरेशन हो गया और सफल रहा परन्तु एक झटका तब तब लगा जब डाक्टर ने वो गाँठ बायोप्सी टेस्ट के लिए भेजी ओर टेस्ट पोजिटिव रहा ....

डाक्टर ने रितेश को बताया और साथ ही केंसर की लास्ट स्टेज कह गाज भी गिरा दी थी ....ठगा सा खडा रहा गया था ....रितेश ये सुन कर .....!!!...

..रिपोर्ट लेकर घर आया तो संध्या उसी की प्रतीक्षा में थी .....

क्या हुआ ..?.घर में घुसते ही सवाल उछाल दिया संध्या ने ....वैसे वो बहुत आश्वस्त नहीं लग रही थी ......लेकिन रितेश ने उस ओर ध्यान नहीं दिया और कहा 'आज डॉक्टर के पास जा नहीं सका '..

संध्या ने शंका भरी द्रष्टि उसकी ओर घुमाई परन्तु कुछ खोज न सकी ...शांत हो गयी .

..'कल ज़रूर ले आना ..वरना में ही चली जाउंगी कल' ......उसने जैसे धमकी दी रितेश को ....

'अरे नहीं तुम आराम करो में कल ले आउंगा' ......रितेश बोला और चिंतित हो कुछ सोचने लगा .......

कुछ दिन टालता रहा ...लेकिन कब तक ....???????..

एक दिन तो आना ही था .....और आ गया ,संध्या आखिर जान गयी कि उसके अंत का आरम्भ हो चुका है ......

..बहुत शांत प्रतिक्रिया थी ......शायद जानती थी वो पहले से कि ऐसा ही कुछ होने जा रहा है ..........

ओर अचानक उसने रितेश के कंधे पर सर रख दिया और बोली तुम्हे याद है पंडितजी क़ी बात ..???

-------------------------------------------------------------------------------------रितेश भी उसके साथ उन लम्हों में पहुँच गया ...अतीत ने आ घेरा उन्हें .......जब मम्मा के यहाँ एक पंडित जी से अचानक मिले थे और उन्होंने रितेश का हाथ देख कर कहा था तुम्हारी पत्नी बीच में ही साथ छोड़ कर चली जायेंगी ......पास बैठी बड़ी बहन से कहा था ....अगले दो साल में तुम अपना मकान बनवा लोगे ........सबने पंडितजी के जाने के बाद बड़ा ही मज़ाक बनाया था ............लेकिन जब बड़ी दीदी सुजाता ने फ्लेट खरीद लिया और उसके ग्रह प्रवेश के लिए सब लोग दिल्ली आये तो संध्या बड़ी ही परेशान और उदास थी .......रितेश ने बहुत पूछा लेकिन उसने कुछ नहीं बताया तो वो चुप हो गया लगा कोई ख़ास बात नहीं ...वो तो सोच भी नहीं सकता था संध्या के दिमाग में क्या चल रहा था ....?
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पंडितजी की कही बात अचानक संध्या के दिमाग में स्म्रतियों की सारी गर्द हटा सबसे आगे खड़ी थी , उसे समझ नहीं आ रहा था क्या करे ??................वो बहन की ख़ुशी में सम्मिलित होने आई थी लेकिन उसके आंसू उसका साथ नहीं छोड़ रहे थे ....

..ख़ुशी की इस गहमा--गहमी में कोई भी उसकी भावनाएं नहीं समझ सका था और वो भी कुछ व्यक्त नहीं कर पायी थी ......

लेकिन पंडितजी की कही दो बातों में से एक बात सत्य होने जा रही थी ..

यही डर संध्या को खाए जा रहा था ........कल दूसरी बात भी सत्य होगी और ...

..वो बात साधारण नहीं थी उसकी उसकी जिंदगी और मौत का सवाल था उसके परिवार का सवाल था ...

....रावी और अंश के मासूम चेहरे उसके सामने थे ......रितेश क्या करेंगे ....मेरे बाद ...बच्चों का क्या होगा ??

यही कुछ अनसुलझे सवाल उसके सामने मुह बाए खड़े थे और वो निरुत्तर थी .....!!

----------------------------------------------------------------अचानक रावी और अंश की आवाज़ ने उन्हें वर्तमान में ला खड़ा किया ..........मम्मा और पापा क्या सोच रहे थे .!..माँ क्या बनाया है ........?

रावी बोलते -बोलते समीप आ गयी ........कुछ भांप कर बोली क्या हुआ है मम्मा ???...

.'कुछ नहीं' .....संध्या उठी और बोली जाओ फ्रेश होकर आओ ...खाना लगाती हूँ .....

खाना खाकर अंश सो गया तो ..संध्या ने रावी को बुलाया .......और बिना कुछ कहे अपनी रिपोर्ट पढने के लिए दे दी ..........रावी ने पढ़ा और माँ से लिपट कर रो दी ......'पापा क्या सच है ये सब '..??.....रितेश से पूछा .......'हाँ बेटा तुम बड़ी हो समझदार हो ...मेरे बाद तुम्हे अपना पापा का और अंश का ध्यान रखना होगा '.........उत्तर संध्या ने दिया

लेकिन माँ हम इलाज करायेंगे .......आप अच्छी हो जाओगी ........बेटा ....अगर भगवानजी चाहेंगे तो में ज़रूर साथ रहूंगी लेकिन अगर नहीं !! तो मुझे जाना होगा ............रावी बड़ी थी सब समझती थी ......बहुत शांत हो गयी थी समय ने उसे ओर परिपक्व बना दिया था ....माँ का बहुत ध्यान रखती .............अंश को भी संभालती ...धीरे -धीरे बहुत से दायित्व ओढती जा रही थी ...ये बात संध्या को कचोटती उसका बचपन समाप्त हो रहा था ..........

................लेकिन फिर सोचती ....उसे ही सामना करना है अपने तरीके से करने दो .....!!लेकिन अकेले में संध्या जी भर कर रोती.....
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माँ को पता चला तो तुरंत ऋतु के साथ चली आई थीं ...........बहुत परेशान हो गयी थीं ...पति के जाने के बाद अकेले ही सम्भाला था सब कुछ उन्होंने ,बहुत साहसी महिला थी लेकिन अपने सामने पुत्री का घर तिनका -तिनका बिखरते नहीं देख पा रही थी .......पल--पल संध्या अशक्त ओर निर्बल हो रही थी ......अब दवाएं तो काम कर ही नहीं रही थी ...बस दुआ थी ......सुजाता दीदी भी आयीं थी ओर चारो माँ -बेटी मिल कर बहुत रोये थे ...

..आज सुजाता दीदी अपने ग्रह प्रवेश में संध्या की आँखों के आंसू का महत्त्व समझ रही थी ओर पश्चाताप था उन्हें कि इस द्वन्द को संध्या ने अकेले झेला था .....

..रावी और अंश को बहुत प्यार कर सुजाता दीदी लौट गयीं थी कब तक रहती !!उनका अपना संसार था ....फोन आते रहते पल -पल की खबर लेती
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संध्या को बिस्तर ने पकड़ लिया था डाक्टर ने बिलकुल मना कर दिया ..लेकिन संध्या हंसती और सबको हंसाने का प्रयत्न करती बाकी सब भी उस के साथ हँसते

और मौक़ा मिलते ही अकेले में जाकर सब रोते शायद कोई किसी को भी अपने आंसू नहीं दिखाना चाहता था ......सिर्फ अंश था जो इस सब से बे खबर हंसता--खेलता .....

चीखता--चिल्लाता अपने में मस्त रहता ...उसे पता भी नहीं था उसकी माँ जिसके बिना उसकी दुनिया में कुछ नहीं अब नहीं रहेगी ....छ साल का अंश .....

मौत की सच्चाई से अनभिग्य था ....सब उसके साथ मन बहलाते ..संध्या स्वयं ज्ज़यादा से ज़्यादा समय उसके साथ बिताना चाहती ...........संध्या से पूछ कर खाने का मीनू निश्चित होता लेकिन वो कुछ नहीं खा पाती .....पंडित जी की कही बात को संध्या ने दिल से लगा लिया था ख़ास तौर पर जब , जब उसने देखा कि सुजाता दीदी से पंडित जी ने जो कहा था सच हो गया और यही बात उसके मनोबल को तोड़ने लगी ....उसकी इच्छा शक्ति तार -तार हो बिखरने लगी

और ......उसके जीने की चाह समाप्त होती नज़र आने लगी लाख प्रयास के बाद भी परिवार के सभी सदस्य उसके बिखरते मनोबल को समेट नहीं पाए

इसी बीच रावी ने १० वी ८५ % अंको के साथ पास की ......तो माहौल ओर ग़मगीन हो गया

संध्या के आंसू रोके नहीं रुक रहे थे ......इस ख़ुशी ओर ग़म को सबने साथ मिल कर मनाया
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आज जब सावित्री पूजा घर में गयी तो बेचैन थी ..संध्या सुबह से परेशान थी .....बहुत तकलीफ में थी ....ऋतु उसके पास थी .....

रावी का मन नहीं था स्कूल जाने का लेकिन आवश्यक टेस्ट था जाना पडा ......अंश को भी ले गयी थी वो ...ओर सोचा भी नहीं था .लौट कर माँ नहीं मिलेंगी ......अंश तो समझ ही नहीं पाया क्या हुआ है ..क्यों भीड़ जमा है ........??.....सुजाता का बुरा हाल था वो समय रहते आ नहीं पायी ..

संध्या ने किसी के लिए प्रतीक्षा नहीं की....... माँ और ऋतु से ही अंतिम विदा लेली .........

सावित्री कब तक रहती ...उसे भी बेटी की पढ़ाई पूरी करानी थी ......उसने बच्चों को साथ लाने प्रस्ताव रखा लेकिन रितेश ने मना कर दिया
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उसके बाद के आठ साल बड़े निर्णायक रहे ,.. बड़ा उतार -चढ़ाव रहा जिंदगी में रावी बी टेक करने कानपुर चली गयी .......अंश को समय ने बड़ा कर दिया ...रावी के होस्टल जाने के समय अंश मात्र नौ साल का था ......

लेकिन उसने स्कूल से आने के बाद अपना खाना बनाना उसने सीख लिया था.......

ये वही अंश था दीदी के सामने बड़े नखरे करता .....माँ के सामने तो स्कूल से आने का मतलब भी नहीं समझ सका ...
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जब सावित्री सुनती .....उसकी आत्मा पर बोझ रहता ...लेकिन लाचार थी .....वहां जा नहीं सकती थी और रितेश बच्चों को यहाँ नहीं छोड़ते थे ......

.छुट्टियों में बच्चे आते तो नानी और मौसी सब सारा लाढ़ निकालते और हर तरह की नयी -नयी चीज़ मौसी बना कर खिलाती .....घर में मानो उत्सव शुरू हो जाता लेकिन उनके जाते ही वो सारी खुशियाँ , सारा उत्साह मानो साथ ले जाते .......
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समय बीत रहा था ...कहते हैं दुःख के लम्हे अपनी गति धीमी रखते हैं .......बड़ी लम्बी होती है अमावस की रात .....लेकिन उसके बाद सुबह निश्चित है ...

....आज रावी की पोस्टिंग हो गयी थी लुधियाना ....अंश भी अपनी तैयारी में लगा था

और सावित्री को लगा आज संध्या की आत्मा को शान्ति मिली

.काली रात बीत रही थी ......भोर की पहली किरण आना ही चाहती थी ....चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई दे रही थी .सावित्री उठी ओर दरवाज़ा खोल दिया ...बाहर सूरज निकलने को था .........आज की ये सुबह नयी थी ..बहुत ख़ास .......

सावित्री का अतीत तक चमक उठा था इस रौशनी से .............सावित्री ने पुकारा ....ऋतु उठ सुबह हो गयी ........

...ओर सचमुच सुबह हो गयी थी ...............
..
- अरुणा सक्‍सेना

मंगलवार, 1 मई 2012


आज के इस दिवस पर एक पुरानी रचना
...........समर्पित है ....समस्त श्रमिकों को ...

'वह तोडती पत्थर' ---------'हमेशा प्रासंगिक'


धूल भरी दोपहरी ने 'वह तोडती पत्थर' याद दिला दी
बचपन में जो सिर्फ एक रचना थी, उसकी परिणति हकीकत में करा दी
हाँ मैं हताश ,परेशान बस की आस में थी
नज़दीक एक इमारत अपने पूर्ण होने , के इंतज़ार में थी
कुछ कामगार , अपनी रोज़ी -रोटी की तलाश में थे
बच्चों को धूप में सुला ,उनके भविष्य को संवारने के प्रयास में थे
हाथ , हाथौडी लिए पत्थर नज़र आते थे
आँखों में शाम के चूल्हे के, अंगार नज़र आते थे
सर पर ईंटे , एक नहीं कई थी
आँखें पेड़ के नीचे सोये ,नौनिहाल पर पसरी थी
बच्चे ने करवट ली और पाँव पसार दिए
मेहनती माँ के अधरों पर भी स्मिता ने झंडे गाढ़ दिए
हाथ और क़दमों में तेज़ी आ गयी ...
मस्तिष्क को शायद ख्वाब की कोई झलक पा गयी
हमेशा प्रासंगिक है ये, इसका अंत नहीं होई
कभी इलाहाबाद का पथ और कभी छोटी सी गली कोई

रविवार, 29 अप्रैल 2012

तुम्हारा जाना

‎"जानाँ"
तुम्हारा जाना, 
कहाँ रोक पाई थी तुम्हे, 
'जाने से' 
जी तो बहुत किया, 
हाथ पकड़ कर रोक लूँ तुम्हे, 
क्या करती? 
जिस्म ने जैसे आत्मा का साथ देने से, 
इनकार कर दिया हो.. 
बुत बनी बैठी रही, 
'और तुम ' 
सीढ़ी-दर- सीढ़ी उतरते चले गए, 
दौड़ कर आई छज्जे पर, 
मुझे देख कर मुस्कुरा पड़े थे, 
और हाथ हिला कर 
'विदा लिया'.. 
छुपा गयी थी मैं, 
अपनी आँखों की नमी, 
अपने मुस्कुराते चेहरे के पीछे, 
जानते हो, बहुत रोई थी, 
तुम्हारे जाने के बाद.. 
तुम्हारा फ़ोन आता, 
'पर तुम' 
औपचारिकता निभा कर रख देते, 
"मैं" 
मुस्कुरा पड़ती,
ये सोच कर, के तुम जानबूझकर सता रहे हो, 
कैसा भ्रम था वो? टूटता ही नहीं था, 
लेकिन भ्रम तो टूटने के लिए ही होते हैं न, 
टूट गया एक दिन, मेरा भ्रम भी, 
ख़त्म हो गयीं सारी औपचारिकताएं... 
कितने आसन लफ़्ज़ों में, 'कहा था तुमने', 
"मुझे भूल जाना" 
"जानाँ" 
भूलना इतना ही आसान होता, 
'तो' 
तुम्हारे विदा लेते ही, भूल गयी होती तुम्हे, 
'खैर' 
कभी तो आओगे, 
शायद सामना भी होगा, 
'बस' 
इतना बता देना, 
"मेरी याद नहीं आई कभी?"

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012


मेरे शब्द---------------

शब्द ...मेरे शब्द..!!! कहाँ हो तुम .!....क्यों इतने शैतान हो तुम ......?
कब से गायब हो , मानते हो ना..!!
अपनी अहमियत ,जानते हो ना
मस्तिष्क बिलकुल सूना है ...
मन का दुःख उस से भी दूना है ......
दूर बचपन तक ढूंढ आई
स्म्रति पर जमी हर गर्द हटाई ...
मन के हर कौने,हर आँगन आवाज़ लगाई !!!
लेकिन तुमको नहीं दिया सुनाई .
मुझ को समझो साथ निभाओ
मेरे विचलित विचारों को अपना जामा पहनाओ
आभारी और क्रतग्य रहूंगी
आजाओ अब कुछ नहीं कहूँगी ............:)

गुरुवार, 22 मार्च 2012

मृत्यु शैया पर लेटी ,
गंभीर बीमारी से पीड़ित 'माँ',
चिंतित है,
इस बात से नहीं,
'कि'
इलाज़ कैसे होगा?
'बल्कि'
इस बात से,
'कि'
मेरे बाद,
मेरे बच्चो का क्या होगा.. !!अनु!!

शनिवार, 10 मार्च 2012

Holi

रंग-बिरंगा शहर
गाड़ियों के हार्न
बहावदार आवाजें
साफ़ -सुथरे हँसते आदमी
खूशबू फैलाती औरतें
... लाल-पीला,हरा-नीला रंग
साथ में भंग
और हुडदंग...

होरी के गीत
गीत के हर कड़ी के बाद
ढोलकों की ठनक थम सी जाती !

कभी-कभी सितार की आवाज
ख़ामोशी के झटके के बाद
मध्य लय में निकलते हुये
सितार की गत उचे स्वर से उभरती

और....
निश्शब्द्ता की घाटी में
स्पष्ट अनुगूँज छोडती ,खो जाती !

बस एक 'मै'
किसी बरसाती नाले की
झुर्रीदार सतह पर
एक तिनके की
तरह, उठती गिरती बहे जा रही....

अचानक से तेज रौशनी का सैलाब
छोडती हुई ढोलकें,
मेरा पूरा अस्तित्व 'तुम'पर टिक गया ... !!

गुरुवार, 8 मार्च 2012


थोड़ा गुलाल , थोड़ा विशेष प्यार ......

 आपके अपने प्रियतम कुछ यूँ सोच रहे हैं ------------

'सोच रहा हूँ इस होली पर.. दिल के रंग निकालूँगा

रंग से रंगे बिना ही प्रियतमा .. होली यार मना लूंगा ।

एक रंग होगा आलिंगन का , शर्म से तुझको लाल करे

सतरंगी इतनी बन जाओ ..मेरा हाल बेहाल करे .....।

अबीर गुलाल दूंगा अधरों से .. तेरे सुर्ख कपोलों पर 

दिल की भाषा सुने सुनाएँ..विराम रहेगा बोलों पर

अधरों से होगा अधरों पर .. वो तो रंग निराला होगा

उसकी रंगत कभी ना उतरे ..भंग भरा वो प्याला होगा' ......

रविवार, 4 मार्च 2012

हर बार छीन ले जाता है कोई,
मेरी तकदीर, मेरे ही हाथों से,
सुना था, गिर गिर कर उठना,
उठ कर चलना ही जिंदगी है..
यूँ, गिरते उठते,
आत्मा तक लहुलुहान हो गयी है..
क्या नाकामियों की,
कोई तयशुदा अवधि नहीं होती..?? !!अनु!!

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012


जज़्बात ------होली के रंगों के साथ ....



होली की सुगबुगाहट बसंत पंचमी से ही शरू हो जाती  है ----------एक बयार ब्बहने लगती है जो सुकून देती है ......

ब्रज में वसंत पंचमी के अवसर पर चौराहों पर होली जलाने वाले स्थानों पर डंडा  गाड़े जाने के साथ ही मंदिरों में होली गायन की परंपरा शुरू हो जाती है.....
और शहरों में भी प्रतीकात्मक होली जगह -जगह चौराहे पर रख दी जाती है ........

यूँ तो होली की छटा पूरे भारत में निराली होती है पर उत्तर प्रदेश में इसका रंग देखते ही बनता है ...
वृन्दावन ..मथुरा की ..होली तो यूँ भी विश्व प्रसिध है ...

बरसाने की लट्ठ मार होली देखने विश्व भर से लोग देखने पहुँचते हैं ...........बरसाना की लठमार होली भगवान कृष्ण के काल में उनकी लीलाओं की पुनरावृत्ति जैसी है।

और बात करें अपनी होली की तो .....करीब पंद्रह दिन पहले से ही ...महल्ले के बच्चे घर -घर होली का चन्दा इकठ्ठा करते थे ....

ख़ुशी से या ज़बरदस्ती .....चंदा तो लेना ही होता ......कई बार शरारती लड़के किसी की चारपाई या ..कोई लकड़ी का सामान भी होली में डाल     देते पर ............सब इसे शरारत का ही नाम देते ..कोई बुरा ना मानता ....जो चंदा देता..नारा लगता 

'सच्चा भाई सच्चा ये घर सच्चा'......और कोई न दे तो ........' हुक्के  पे हुक्का ये घर भूक्का ' 

और सब शोर मचाते निकलते तो आंटी पैसे पकड़ा ही देती थी ......सबके घर में आलू के चिप्स ,आलू ,मैदा और साबूदाने के पापड बनने शुरू हो जाते थे ..........

चार दिन पहले से.......बेसन के सेब ...दाल तल कर घर का विशेष नमकीन बनाया जाता ........गुझिया होली का विशेष खाद्य पदार्थ होता है ...कई दिन पहले से मावे ,बूंदी के लड्डू की और सूजी की गुझिया बनायी जाती थी ......

नमक पारे , शकरपारे  ...मठरी ....नमक और मोयन डली मैदा ...से अनेक  प्रकार की आकृतियाँ बनाते ..जैसे करेले ....कली ....काजू .....और सबसे स्वादिष्ट बनती थी ............सूजी की  भुरभुरी और खस्ता ____सतपुली __.....

बेहद उत्साह के साथ हर घर में ये सभी चीज़ें मिल कर बनायी जाती थीं ....मोहल्ले में सब एक -दूसरे के घर में जाते ....और मदद करते ..........सब मिल कर एक -एक घर का काम बारी -बारी निपटाते थे 

एक दिन पहले बनते थे दही बड़े ....जो उड़द और मूंग की दाल से बनाते थे .....हमारे यहाँ तो उसमें डालने के लिए मम्मी के हाथ का विशेष मसाला बनाया जाता ...........मीठी सौंठ बनती ...

और ..होली की शाम को .....जब होली दहन होता ....तो गज़ब का हुडदंग मचता था .....शोर शराबे के बीच नयी फसल गेंहू के बाल भूने जाते ......कई घरों में भी होली जलाने की परम्परा थी ..जो आज भी कायम है ...

हमारे घर में भी होली जलती थी ..जिसे चौराहे की होली से  अग्नि लाकर  ही जलाया जाता था ..... घर में महिलायें और बच्चे होली के गीत भी गुनगुनाते और गेंहू की बाल भी भूनते जाते ...........सभी पुरुष बाहर  की होली से गेंहू के बाल भून कर लाते थे ........

उसके बाद शुरू होता गेंहू के भुने जौ सभी को देकर बड़ों के चरण स्पर्श ...छोटो को आशीर्वाद देने का सिलसिला .......
एक -दूसरे के गले मिलने का सिलसिला .......सुबह तक यही सिलसिला जारी रहता ........

एक मेला सा लग जाता .........उत्साह देखते ही बनता था .........

और पौं -फटते ही रंगों की बौछार ..अबीर-गुलाल ,मस्तक पर चन्दन ...और पिचकारी की रंगीन धार ...,.....,....

टेसू के फूल रात को भिगोये जाते .....जो त्वचा के लिए लाभदायक होते ..

महिलायें सुबह ही ...अपने बनाये खाद्य पदार्थो से थाल  सजा कर .....दक कर रख देती ...दही बड़े कई प्लेट या बाउल में बन कर तैयार रहते ......कोई भी आये ..बिना खाए ना जाए .......
जिसकी जो मर्ज़ी हो जितनी मर्ज़ी हो खाए ...होली खेले और जब मर्ज़ी जाए ..........

यही सिलसिला दो या तीन बजे तक चलता ...खूब हुडदंग मचता .....धमाल होता ..सब सारे दुःख - सुख .....बैर -भाव ..सब भूल बस होली के रंग में रंग जाते ..............

धीरे -धीरे ....उत्साह कम होता ...जाता ..तो ..सफाई शुरू होजाती ......धुलाई होती ....एक -एक कर नहाना शुरू हो जाता  ..सब थकान मिटाना शुरू करते ...और एक सप्ताह तक ...महिलाओं का होली मिलन ..चलता रहता था ...सबके घरों में जा -जाकर ...गुझिया का स्वाद लिया जाता .....गप -शप होती ...........और महिला मण्डली दूसरे घर की राह लेती 

सब ..उत्साह में रहते थे ...न किसी का बजट गडबडाता ..न किसी का स्वास्थय ..........

खूब खाते और धमाल मचाते .......

आज भी होली .मनाई जाती है ........लेकिन ...सिर्फ औपचारिकता रह गयी है ........समयाभाव ,महंगाई ,बजट,और स्वास्थ के चलते बहुत सी खाने की चीज़ें अपना अस्तित्व ही खो चुकी हैं ....... कुछ परम्परा गत वस्तुएं हैं ......जिन्हें बनाना  स्वाद से ज़्यादा  ..बाध्यता है ......

और बाज़ार से सामान खरीद कर त्योहार की औपचारिकता पूरी कर ली जाती है ...............

बहुत से लोग तो इस दिन ...घर में बंद होकर रहना पसंद करते हैं ........कुछ लोग सिर्फ ...गुलाल से खेलना .पसंद करते हैं .........रंगों का मिलावटी होना भी लोगो को ..उदासीन बना रहा है ............कई लोगो को .....त्वचा की समस्या हो जाती है ......आज के दिन कई लोग अपनी दुश्मनी का बदला लेकर ..इस सुंदर त्योहार की शालीनता को नष्ट  कर देते हैं ....

कुल मिला कर आज ये रंगीन त्योहार अपनी पहचान खोने की कगार पर है ........सम्बन्ध औपचारिक हो रहे हैं ...त्योहार कैसे अनौपचारिक  रह सकते हैं .........???

आज भी हर होली पर वही सब सामने आ जाता है ......

पर फिर ..मन को समझाना पड़ता है ..अरे ..हर समय एक सा  नहीं रहता .........समय के सब बदलता है तो ---------तौर - तरीके क्यों नहीं ....??..लोगो का उत्साह क्यों नहीं .....???.........

और फिर याद आता है .......

अरे हाँ परिवर्तन तो संसार का नियम है ...और अगर वो सब बीत नहीं जाता ...तो में ये सब कैसे लिख रही होती ..इन अनमोल यादों में कैसे खोती ..............आप लोग भी कहीं न कहीं सहमत होंगे और शायद कुछ यादें आपको भी विचलित कर दे ..

.परन्तु .......परिवर्तन की स्थिरता को सम्मान देते हुए .....बस यही कहूँगी .....मित्रों ................आप सभी को होली की बहुत सारी हार्दिक शुभकामनाएं ........अच्छी और सुरक्षित होली खेलें ........
.

शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012




---तुम -----


१-बिना तुम्हारे
 
तपिश अकुलाये

 
दिल की बात

 
२-शूल बन के


चुभन दे रही जो

याद है तेरी


३-आज आओगे


दस्तक दिल पर


लम्हा दे रहा .

सोमवार, 13 फ़रवरी 2012

‎"एक छोटी सी लव स्टोरी जो गठबंधन में बदल गयी "

खूबसूरत , चंचल , मधुर मुस्कान की स्वामिनी अंजू से मेरी तीसरी मुलाकात मुकेश मानव जी के द्वारा आयोजित ' प्रेम कविता महोत्सव ' पर हुई , साथ में अंजू के पति विवेक भी थे , पति की उपस्थिति में अंजू ने जिस तरह थोडा शरमातें हुए अपनी प्रेम कविताएँ सुनाई , उससे उस मफिल में चार चाँद लग गएँ जो महफ़िल सिर्फ प्रेम कवितों के लिए सजाई गयी थी !
     आयोजन से मैं अंजू के साथ ही वापस आई , प्रेम कविताओं की बातें करते- करते अंजू और विवेक ने बताया की उनकी लव मैरिज हुई थी , इतना जानना था की फिर कब , कैसे , क्या हुआ , किसने किसको पहले प्रपोज़ किया ....ये सब जानने के लिए मैं उत्सुक हो गयी , विवेक तो थोडा शरमा रहे थे और सारी बातों को मजाक में ले रहे थे , उन्होंने मजाक करते हुए कहा की " मुझे नहीं मालूम था की इससे प्यार होने के बाद इसकी बोरिंग कविताओं को झेलना पडेगा " लेकिन अंजू ने गंभीरता से जो थोडा बहुत अपनी प्रेम कहानी के बारे में बताया वो कुछ इस तरह थी .......
             अंजू और विवेक एक ही कॉलेज में थे , अक्सर किसी न किसी बात को लेकर दोनों आपस में झगड़ते रहते थे इसके बावजूद भी दोनों एक दूसरे के बारे में बहुत कुछ जानते थे , जो कभी कभी एक अच्छे दोस्त भी एक दूसरे के बारे में नहीं जानते , समय बीतता गया , करीब दो वर्ष बाद विवेक ने ये महसूस किया की उसे अंजू से प्यार है क्योकि कभी -कभी अंजू जब कॉलेज नहीं आती थी तो वो उसके बिना खुद को अकेला महसूस करता था | विवेक ने ही पहले अंजू को प्रपोज़ किया , कहीं न कहीं अंजू के दिल में भी विवेक के लिए प्यार था वो मन ही मन इस बात को स्वीकार कर चुकी थी लेकिन विवेक से कह नहीं पाती थी , अंजू ने विवेक का प्रपोज़ल स्वीकार कर लिया लेकिन परिवार वालों की मर्ज़ी के बगैर वो शादी नहीं कर सकती थी और विवेक से प्यार की बात भी अपने परिवार के सामने रखने में वो हिचकिचा रही थी , अंजू की इस बात पर विवेक थोडा नाराज़ भी हुआ क्योकि विवेक अपने माता-पिता से अंजू के बारे में बात कर चुका था | दोनों ही अरेंज्ड मैरिज के पक्षधर थे और अपने संस्कारों के चलते परिवारवालों की रजामंदी के बगैर कोई कदम नहीं उठाना चाहते थे |
     धीरे धीरे वक़्त गुजरता रहा , कॉलेज की पढाई ख़त्म करके दोनों अलग अलग जॉब करने लगे थे , कई बार दोनों ने यही सोचा की उन दोनों की शादी शायद संभव नहीं है लेकिन ईश्वर ने उन दोनों का गठबंधन तय कर रखा था तभी तो कुछ वर्ष बाद जहाँ विवेक जॉब करता था वही अंजू की भी जॉब लगी और फिर एक बार दोनों का आमना -सामना हुआ , भूले तो वो कभी भी एक दूसरे को नहीं थे एक बार फिर एक दूसरे को सामने पाकर मन में छुपी प्यार की भावनाएं एक बार फिर बाहर आ गयी |
   आखिर में विवेक ने ही हिम्मत करके अंजू के माता-पिता से अपनी शादी की बातचीत की , दोनों ब्रह्मिण परिवार से थे , दिल्ली में ही पले बढे थे इसलिए उनके माता पिता को भी उनकी शादी पर कोई आपत्ति नहीं हुई , सात साल के अफेयर के बाद दोनों की शादी खूब धूम -धाम से हुई , सबसे बड़ी बात की रिश्तेदारों और पड़ोसियों की निगाह में ये एक अरेंज्ड मैरिज ही थी |
      शादी के सोलह साल हो गएँ हैं और दोनों एक दूसरे के साथ बहुत खुश हैं !
विवेक गाडी ड्राइव कर रहे थे और बगल में बैठी अंजू हस्ती , मुस्कुराती हुई अपनी प्रेम कहानी मुझे सुना रही थी उसकी आँखों में आज भी विवेक के लिए वही प्रेम मुझे दिख रहा था जो कभी शादी के पहले हुआ करता होगा .......

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012


बेरोजगार बेटे का दर्द ------

माँ करना तू सब्र ज़रा सा ,अपना भी दिन आयेगा


मुरझाया चेहरा तुम्हारा , जब एक दिन खिल जाएगा

पहला दिन मेरे जीवन का ,जब में ऑफिस जाउंगा


पेंट शर्ट और टाई लगा कर ,थोड़ा सा इतराऊंगा ........

भरपूर नज़र से जब देखोगी ,माँ में शरमा जाउंगा


स्वप्न तुम्हारी आँखों का माँ ,सच में 'सच' कर पाउँगा .....

माँ निराश ना होना तुम बस ,आशा दीप जला रखना


परिस्थितियों के तूफानों से ,उसको ज़रा बचा रखना .....

'नाकारा' ना मुझे समझना ,तेरा दर्द समझता हूँ


माथे पर जो खींची लकीरें ,उनका मर्म समझता हूँ ......

पापा को भी कहना माँ तुम ,में सपूत कहलाउंगा


नाम करूंगा रोशन उनका , कालिख नहीं लगाउंगा

प्यार और विश्वास चाहिए ,तेरा आशीर्वाद चाहिए


आँचल में छिपा ले माँ तू , मुझको तेरा साथ चाहिए ......

स्त्री

कभी कभी 'मन'
बड़ा व्याकुल हो जाता है,
संशय के बादल, घने
और घने हो जाते हैं,
समझ में नहीं आता,
स्त्री होने का दंभ भरूँ,
'या' अफ़सोस करूँ...

कितना अच्छा हो,
अपने सारे एहसास,
अपने अंतस में समेट लूँ,
और पलकों की कोरों से,
एक आँसूं भी न बहने पाए....

यही तो है,'एक'
स्त्री की गरिमा,
'या शायद'
उसके, महान होने का
खामियाजा भी...

क्यूँ एक पुरुष में
स्त्रियोचित गुण आ जाये,
तो वो ऋषितुल्य हो जाता है,
'वहीँ'
एक स्त्री में पुरुषोचित
गुण आ जाये तो 'वो'
'कुलटा'

विचारों की तीव्रता से,
मस्तिस्क झनझना उठता है,
दिल बैठने लगता है,
डर लगता है
ये भीतर का 'कोलाहाल'
कहीं बाहर न आ जाये,
और मैं भी न कहलाऊं
'कुलटा'.....!!अनु!!

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जब कभी मन उद्वेलित होता है,
'तब'
जी करता है की 'चीखूँ'
जोर से 'चिल्लाऊं'
जार जार रोऊँ ..
'लेकिन फिर'
आड़े आ जाती है
'वही'
स्त्री होने की गरिमा ..
लोग क्या कहेंगे?
पडोसी क्या सोचेंगे?

ठूंश लेती हूँ,
अपना ही दुपट्टा,
अपने मुंह में,
'ताकि'
घुट कर रह जाये
मेरी आवाज़,
मेरे ही गले में...

और घोंट देती हूँ,
अपने ही हाथों
'गला'
अपने 'स्वाभिमान' का.... !!अनु!!